Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद



सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे 'दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें' कहता हुआ दौड़ा।
फिटन में सामने की गद्दी पर मि. जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज जॉन सेवक बैठी हुई थीं। दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफ़िया सेवक थी। जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे-चिट्टे आदमी थे। बुढ़ापे में भी चेहरा लाल था। सिर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। पहनावा अंगरेजी था, जो उन पर खूब खिलता था। मुख आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था। मिसेज सेवक को काल-गति ने अधिक सताया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं, और उससे हृदय की संकीर्णता टपकती थी, जिसे सुनहरी ऐनक भी न छिपा सकती थी। प्रभु सेवक की मसें भीग रही थीं, छरहरा डील, इकहरा बदन, निस्तेज मुख, आँखों पर ऐनक, चेहरे पर गम्भीरता और विचार का गाढ़ा रंग नजर आता था। आँखों से करुणा की ज्योति-सी निकली पड़ती थी। वह प्रकृति-सौंदर्य का आनंद उठाता हुआ जान पड़ता था। मिस सोफ़िया बड़ी-बड़ी रसीली आँखोंवाली, लज्जाशील युवती थी। देह अति कोमल, मानो पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई हो। रूप अति सौम्य, मानो लज्जा और विनय मूर्तिमान हो गए हों। सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थी, जड़ का कहीं आभास तक न था।
सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगा?
मि. जॉन सेवक बोले-इस देश के सिर से यह बला न-जाने कब टलेगी? जिस देश में भीख माँगना लज्जा की बात न हो, यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उध्दार में अभी शताब्दियों की देर है।
प्रभु सेवक-यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजाओं के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या-लाभ करते समय भीख माँगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थी, किंतु वे लोग माया-मोह से मुक्त रहकर ज्ञान-प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राह्मण, जो जमींदार हैं, घर से खाली हाथ मुकदमे लड़ने चलते हैं, दिन-भर कन्या के विवाह के बहाने या किसी सम्बंधी की मृत्यु का हीला करके भीख माँगते हैं, शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैं, पैसे जल्द रुपये बन जाते हैं, और अंत में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों की जेब में चले जाते हैं।
मिसेज़ सेवक-साईस, इस अंधे से कह दो, भाग जाए, पैसे नहीं हैं।
सोफ़िया-नहीं मामा, पैसे हों तो दे दीजिए। बेचारा आधो मील से दौड़ा आ रहा है, निराश हो जाएगा। उसकी आत्मा को कितना दु:ख होगा।
माँ-तो उससे किसने दौड़ने को कहा था? उसके पैरों में दर्द होता होगा।
सोफ़िया-नहीं, अच्छी मामा, कुछ दे दीजिए, बेचारा कितना हाँफ रहा है। प्रभु सेवक ने जेब से केस निकाला; किंतु ताँबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकला, और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज होने का भय था। बहन से बोले-सोफी, खेद है, पैसे नहीं निकले। साईस, अंधे से कह दो, धीरे-धीरे गोदाम तक चला आए; वहाँ शायद पैसे मिल जाएँ।
किंतु सूरदास को इतना संतोष कहाँ? जानता था, गोदाम पर कोई भी मेरे लिए खड़ा न रहेगा; कहीं गाड़ी आगे बढ़ गई, तो इतनी मेहनत बेकार हो जाएगी। गाड़ी का पीछा न छोड़ा, पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहाँ तक कि गोदाम आ गया और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गया, जैसे वृक्षों के बीच में ठूँठ खड़ा हो। हाँफते-हाँफते बेदम हो रहा था।
मि. जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़त खोल रखी थी। ताहिर अली नाम का एक व्यक्ति उसका गुमाश्ता था बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।
जॉन सेवक ने पूछा-कहिए खाँ साहब, चमड़े की आमदनी कैसी है?
ताहिर-हुजूर, अभी जैसी होनी चाहिए, वैसी तो नहीं है; मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।
जॉन सेवक-कुछ दौड़-धूप कीजिए, एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आस-पास के देहातों में चक्कर लगाया कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूँ। तब आस-पास के चमार यहाँ रोज आएँगे, और आपको उनसे मेल-जोल करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिए, ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा, जिस दिन शहर के दो-चार धनी-मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गई, तो कई दिनों की दौड़धूप ठिकाने लग जाती है।

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